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Sustainable development

भारत में जलवायु अनुकूल कृषि प्रणालियों की आवश्यकता

भारत में जलवायु अनुकूल कृषि प्रणालियों की आवश्यकता

जलवायु एक ऐसी चीज है, जिसका प्रभाव लगभग सभी के ऊपर पड़ता है। जीव-जंतु, पेड़-पौधे सभी इसकी चपेट में आ जाते हैं। अगर जलवायु अच्छी होती है तो इसका असर अच्छा पड़ता है। वहीं खराब जलवायु के कारण इनका बुरा प्रभाव भी देखने को मिलता है। लेकिन सबसे ज्यादा इसका खराब असर हमें कृषि पर देखने को मिलता है। जिसके कारण कृषि आपूर्ति में कमी आ जाती है। ऐसे में किसानों को चाहिए कि वो ऐसी कृषि प्रणाली की व्यवस्था करें जो जलवायु के अनुकूल हों। ऐसी खाद्य, ऐसी मिट्टी, ऐसी तकनीक का इस्तेमाल करें जो इन बदलती हुई जलवायु को सहन कर सकें। और ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन करने में सक्षम हों।

जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभाव

यदि सही समय पर सही जलवायु नहीं रहती यानी जब बारिश होनी चाहिए तो बारिश नहीं होती। हद से ज़्यादा बारिश का होना या बहुत कम बारिश होना। बाढ़ आ जाना, सही दिशा में हवा का न चलना, बहुत ज़्यादा गर्मी पड़ना, तो इन सबका कृषि पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में फसलें खराब हो जाती हैं और कृषि की आपूर्ति होने में भी परेशानी होती है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से फसल, मिट्टी, व पानी पर पड़ता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह जल की उपलब्धता, सुखाड़ की तीव्रता, मिट्टी में पाए जाने वाले जैविक तत्वों में कमी, सूक्ष्म जीवों की आबादी,  पैदावार में होने वाली कमी, मृदा अपरदन के कारण मिट्टी की उर्वराशक्ति में गिरावट होना आदि पर प्रभाव डालता है। जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभाव

जलवायु परिवर्तन से कृषि पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं -

  • जलवायु परिवर्तन से मृदा में होने वाली प्रक्रियाएं तथा मृदा-जल के संतुलन प्रभावित होते हैं। मृदा-जल के संतुलन की कमी होने पर सूखी मिट्टी और अधिक शुष्क हो जाती है और सिंचाई के लिए पानी की आवश्यकता भी बढ़ जाती है।
  • जलवायु परिवर्तन के कारण ही कुछ जगह पर बाढ़ तो कहीं अकाल पड़ जाता है। जिस कारण फसलों को काफ़ी ज़्यादा नुकसान झेलना पड़ता है।
  • वहीं अधिक तापमान, बारिश का बहुत कम या बहुत अधिक होना, बाढ़, अकाल, चक्रवात आदि भी कृषि को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। इसके अतिरिक्त उच्च तापमान विभिन्न प्रकार की सब्जियों की पैदावार पर भी असर डालता है।
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से भी कृषि पर पड़ता है। और इसके मुख्य उदाहरण हैं - खर-पतवार को बढ़ाना और फसलों तथा खर-पतवार के बीच स्पर्द्धा को तीर्व कर देना। वहीं कीट-पतंगों व रोग-जनकों को बढ़ावा देना आदि भी इसी श्रेणी में आता है।

वहीं इसके अलावा हमारे भारत देश में कई बार जलवायु परिवर्तन के कारण भारी नुकसान हुए हैं। जैसे -

  • मुंबई में 2005 में बाढ़ आने के कारण 2 करोड़ लोगों को राहत शिविर में अपना दिन गुजारना पड़ा था। वहीं बिहार में भी 2008 में ऐसी बाढ़ आई थी कि लाखों लोग राहत शिविर में अपना दिन गुजारने पर मजबूर हो गए थे।
  • यदि यमुना की बात करें तो 2008 में यमुना नदी का पानी खतरे के निशान से अधिक ऊपर चला गया था। जिस कारण दिल्ली और हरियाणा को लाखों रूपए का नुकसान झेलना पड़ा था।
  • इसके अलावा 2018 में केरल में अत्यधिक बारिश होने से सबसे भयंकर बाढ़ आई थी।

उपाय

(1) हमेशा ऐसी बीजों को महत्व देना चाहिए, जो सूखे जैसी गंभीर स्थिति में फसल उत्पादन के जोखिम को 50% तक कम करने में सक्षम हों। (2) वहीं गेंहू की फसल रोपण के समय कुछ बदलाव करने के बारे में भी सोचा जाना चाहिए। एक अनुमान से यह बात सामने आई है कि ऐसा करने से जलवायु परिर्वतन से होने वाले नुकसान को लगभग 60 से 75 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। (3) सहनशील फसलों का उत्पादन किया जाना चाहिए। जैसे - हरा चना, काबुली चना, ज्वार और अरहर आदि। यह ऐसी फसलें हैं जो कम वर्षा की स्थिती में और जल्दी भी उगाई जा सकती हैं। ये परमपरागत बीजों की तुलना में 20-25 प्रतिशत अधिक पैदावार करती हैं। (4) यदि आप चाहते हैं कि जलवायु परिर्वतन से आपकी कृषि पर कोई अधिक प्रभाव न पड़े तो उसके लिए आपको जल संरक्षण पर भी ध्यान देना चाहिए। इसका फायदा यह होगा कि सूखा पड़ने जैसी स्थिति में आप उस संरक्षित पानी का इस्तेमाल कर सकते हैं। जल संरक्षित करने की बहुत सारी तकनीक हैं, जिनका प्रोयोग करके आप काफी हद तक पानी बचा सकते हैं। जैसे - लघु सिंचाई करना, खाद देने वाली फसल का उपाय करना, अपशिष्ट जल का दोबारा प्रयोग करना, फर्रो-इरिगेटेड रेज्ड बेड, वर्षाजल संचयन ढांचा, ग्रीनहाउस, मिट्टी को बराबर रखे रहना, कम सिंचाई आदि। (5) रिस्पांस फार्मिंग को बढ़ावा देना चाहिए। रिस्पांस फार्मिंग एक ऐसी तकनीक होती है, जिसमें स्थानीय मौसम की जानकारी के आधार तकनीक विशेषज्ञों से ली गई सलाह से खेती की जाती है। यह एक कम खतरे वाली और अधिक उत्पादन वाली खेती है। (6) कोई भी घटना घटने से पहले प्रत्येक गांव को उसकी जानकारी पहले से दी जानी चाहिए। जैसे - अलग अलग मौसम में फसल कीटों और महामारियों के बारे में पहले से चेतावनी देने पर ज़्यादा क्षति का खतरा कम हो जाता है। वहीं बारिश होने के अनुमान की जानकारी भी अधिक नुकसान होने से बचा सकती है। (7) मिट्टी में जैविक कार्बन का इस्तेमाल किया जाना चहिए। ऐसा करने से मिट्टी की कार्यक्षमता को बढ़ाया जा सकता है। वहीं संरक्षण करने वाली कृषि तकनीक का यूज़ करके भी जलवायु परिर्वतन के खतरे को कम किया जा सकता है। जैसे - कम जुताई करना, फसलों की अदल-बदल कर बुआई करना और मिट्टी को लाभ पहुंचाने वाली फसलों की पैदावार करना आदि।

सरकार/कृषि संगठनों से सहायता

जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के लिए सरकार या कृषि संगठनों से जो सहायता प्राप्त हुई है या जो कार्यक्रम चलाए गए हैं, वो निम्नलिखित हैं -
  • 2004 और 2014 में सरकार द्वारा नेशनल प्रोजेक्ट ऑन ऑर्गैनिक फार्मिंग (NPOF) तथा नेशनल एग्रो-फॉरेस्ट्री पॉलिसी (NAP) जैसी परियोजनाओं की शुरूआत की गई थी। जिसका मकसद किसानों को अधिक आय, अधिक लाभ तथा पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण को लेकर उन्हें प्रोत्साहित करना और उनका हौंसला बढ़ाना था। वहीं इन नीतियों का मुख्य उद्देश्य है जैविक संशोधन के रूप में पौधों तक पौष्टिक तत्वों को पहुंचाना। इसके अलावा मिट्टी के कार्बन स्टॉक में सुधार करना, कटाव से मिट्टी का संरक्षण आदि भी इसी के अंतर्गत आते हैं।
  • वहीं 2010 में नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाइमेट चेंज (NAPCC) के तहत नेशनल मिशन फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर (NMSA) मिशन की शुरूआत हुई थी। जिसका उद्देश्य उपलब्ध संसाधनों के विवेकपूर्ण प्रबंधन को बढ़ावा देना था। यह मिशन NAPCC के आठ मिशनों में से एक था।
  • इसके अलावा 2014 में भारत सरकार द्वारा NAPCC के तहत ग्रीन इंडिया मिशन (GIM) की शुरुआत की गई थी। यह मिशन चरम जलवायु क्रियाओं को कम करने के लिए लागू किया गया था। इस परियोजना का मकसद भारत के घटते हुए वनों को बचाकर, पुनरोद्धार कर तथा उसका विस्तार करके जलवायु परिवर्तन से होने वाले भारी प्रभावों को कम करना था। जिससे की अधिक नुकसान होने से बचा जा सके।
  • सरकार ने "प्रति बूंद अधिक फसल" के द्वारा सूक्ष्म/ड्रिप सिंचाई को प्रोत्साहित किया था। और इसी के तहत 2015 में प्रधान मंत्री कृषि संचय योजना (PMKSY) की शुरूआत की गई थी। जिसका मुख्य उद्देश्य पानी का सरंक्षण करना है।
स्मार्ट कृषि प्रणाली : किसानों की भविष्यकारी नीति और चुनौतियां

स्मार्ट कृषि प्रणाली : किसानों की भविष्यकारी नीति और चुनौतियां

बदलते वैश्विक परिदृश्य में अब भारत सरकार भी डिजिटलीकरण के माध्यम से संचालित कृषि नीतियों को प्राथमिक उद्देश्य में शामिल करने के लिए प्रयास कर रही है। 

 साल 2022-23 के बजट में सरकार ने नई कृषि तकनीकों को डिजिटलीकरण के क्षेत्र में काम करने वाली स्टार्टअप तथा किसान उत्पादक संस्थान (Food Processing Organisation) के साथ मिलकर स्मार्ट कृषि की राह पर चलने का फैसला किया है। कोविड-19 जैसी महामारी और कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं से पैदा हुए खाद्य संकट को कम करने में भी स्मार्ट खेती का महत्वपूर्ण योगदान देखने को मिला है।

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क्या होती है स्मार्ट कृषि ?

किसी भी खेती प्रणाली में अपशिष्ट उत्पादों की मात्रा को कम करते हुए, खेत से प्राप्त होने वाली उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक को ही स्मार्ट कृषि (Smart Farming) कहा जा सकता है। स्मार्ट कृषि एक बड़े परिदृश्य को परिभाषित करती है, इसके तहत बेहतरीन तकनीक की रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट (remote sensing satellite) और दूसरे वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से संसाधनों के कुशल प्रबंधन को भी शामिल किया जा सकता है।

साल 2015 से विश्व के लगभग सभी देश समुचित विकास (Sustainable development) की राह पर चलते हुए पर्यावरण की गुणवत्ता को कम से कम नुकसान पहुंचाते हुए विश्व में खाद्य संकट के निदान के लिए प्रयासरत हैं। विज्ञान की नई तकनीक जैसे रिमोट सेंसिंग, रोबोटिक्स तथा बिग डाटा एनालिटिक्स (Big Data Analytics) और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के अलावा इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IOT) जैसी कई प्रौद्योगिकियों परंपरागत खेती को स्मार्ट कृषि में बदल सकती है।

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स्मार्ट कृषि से किसानों को होने वाले फायदे :

किसी भी नई प्रौद्योगिकी और उत्पाद को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्षों से सोचा जाना चाहिए। स्मार्ट खेती के लिए भी नई वैज्ञानिक तकनीक प्रभावी नीति निर्माण कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, जैसे कि :-

  • कृषि प्रणाली की दक्षता में बढ़ोतरी :-

किसी भी किसान के लिए खेत से अधिक उपज प्राप्त करना सपने के सच होने जैसा होता है। स्मार्ट कृषि उत्पादकता बढ़ाने के साथ ही कृषि प्रणाली की दक्षता को सुदृढ़ करने में सक्षम है।

इसके लिए विभिन्न तरीके के उत्पाद, जैसे कि 'किसान ड्रोन'  (Kisan Drone) का उपयोग पानी में घुलनशील उर्वरकों और पोषक तत्वों के छिड़काव के अलावा कीटनाशक के सीमित इस्तेमाल के लिए भी किया जा सकता है।

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श्रम संकट को ध्यान में रखते हुए किसान ड्रोन शारीरिक श्रम के लिए एक विकल्प के रूप में उपलब्ध हुआ है।

  • भूमि रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण :

वर्तमान में ब्लॉकचेन तकनीक (Blockchain Technique) की मदद से विकसित देशों में सेंसर आधारित उपकरणों का सहयोग लेकर भूमि से जुड़ी संपूर्ण जानकारी को डिजिटल माध्यमों की मदद से उपलब्ध करवाया जा रहा है।

नई तकनीकों के प्रसार की वजह से किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी और अलग-अलग योजनाओं के लिए लाभान्वित होने वाले व्यक्तियों की संपूर्ण जानकारी इकट्ठा करना काफी आसान हो गया है, इस पारदर्शिता की मदद से सही लाभार्थी लोगों तक आर्थिक मदद को आसानी से पहुंचा जा सकता है।

  • कम्युनिटी विकास पर फोकस :

छोटे किसानों के लिए स्मार्ट कृषि का इस्तेमाल करना काफी मुश्किल हो जाता है, वर्तमान में स्मार्ट कृषि से अलग अलग क्षेत्रों के किसानों के मध्य जागरूकता बढ़ाने और भाईचारे का स्वभाव भी पैदा किया जा रहा है।

साल 2018 में बेंगलुरु की एक स्टार्टअप कंपनी वी-ड्रोन ने आसपास के एरिया से छोटे किसानों को एक पैनल के जरिए जोड़ने का प्रयास किया और ऐसे किसानों के खेत की रोबोटिक्स और मेपिंग तकनीक की मदद से केवल पांचसौ रुपए के शुल्क पर एक एकड़ से अधिक भूमि का डाटा उपलब्ध करवाया।

  • बाजारू मांग की सही पहचान और बदलते मौसम की सही जानकारी :

वेदर फोरकास्टिंग और सीधे मंडियों से जुड़े कई डिजिटल सॉफ्टवेयर की मदद से किसान भाइयों को उनके मोबाइल फोन पर ही वर्तमान में फसल की मांग के अनुसार बाजार में चल रही कीमत का पता लग जाता है।

इसके साथ ही भविष्य में स्टॉक की मात्रा का अंदाजा लगाकर किसान भाई फसल को कुछ समय तक स्टोरेज करके भी बेच सकता है।

मौसम से जुड़ी जानकारियां किसान भाइयों के खेत में होने वाले नुकसान को कम करने में सहयोग प्रदान करने के साथ ही शारीरिक श्रम में कमी और उर्वरकों के कम इस्तेमाल के लिए भी प्रेरित करती है।

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स्मार्ट कृषि प्रणाली में आने वाली चुनौतियां :

स्मार्ट कृषि की विकास प्रक्रिया में बाधित नकारात्मक प्रभाव को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है:-

  • बजटीय सहायता की कमी :

साल 2022 में कृषि क्षेत्र में नई तकनीकों के विकास और अनुसंधान कार्यों के लिए बहुत ही सीमित राशि उपलब्ध करवाई गई है।

बदलते समय के साथ सरकार को भी समझना होगा कि अब केवल डिजिटलीकरण और स्मार्ट कृषि की मदद से ही उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है।

  • लघु और सीमांत किसान जोत :

भारतीय कृषि में किसानों की लघु और सीमांत आकार की जोत को एक बड़ी समस्या के रूप में देखा जाता है।

छोटे और सीमांत जोत में 2 हेक्टेयर से कम क्षेत्र के खेत को शामिल किया जाता है।

वर्तमान में छोटे और सीमांत किसानों की संख्या 85 प्रतिशत से भी अधिक है, वहीं 10 हेक्टेयर से बड़ी खेत की जोत रखने वाले किसान केवल 0.5 प्रतिशत है।

किसानों के लिए स्मार्ट तकनीक से होने वाले आर्थिक लाभ को सीमित करने में जोत का आकार बहुत महत्वपूर्ण होता है।

  • कृषि क्षेत्र में स्टार्टअप कंपनियों का कम विकास :

टेलीकम्युनिकेशन और कंप्यूटर सेक्टर में बनने वाली नई स्टार्टअप कंपनियां की तुलना में कृषि क्षेत्र में काम करने वाली स्टार्टअप दो प्रतिशत से भी कम है।

अधिक जनसंख्या वाले देश में खाद्य संकट को सीमित करने के लिए कृषि क्षेत्र से जुड़ी नई तकनीकों की विकास को मध्य नजर रखते हुए स्टार्टअप कंपनी की को बढ़ाने के लिए सरकार को भी प्रोत्साहन देना चाहिए।

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विश्व खाद्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार साल 2030 तक भारत में खाद्य संकट बढ़ने की संभावनाएं 25% से अधिक हो जाएगी। स्मार्ट कृषि में आने वाली समस्याओं का बिग डाटा एनालिटिक्स और बैकवर्ड-फॉरवर्ड लिंकेज को बेहतर बना कर इंटरनेट ऑफ थिंग्स की मदद से समाधान किया जा सकता है। 

 आशा करते हैं हमारे किसान भाइयों को merikheti.com के द्वारा उपलब्ध करवाई गई स्मार्ट कृषि से जुड़ी जानकारी पसंद आई होगी।भविष्य में आप भी डिजिटल माध्यमों का सदुपयोग करते हुए बेहतर कृषि उत्पादन के लिए नई तकनीकों के बारे में जानकारी हासिल कर पाएंगे।